नितांत चलायमान घडी की ओर घंटों से टिकीं वो अथक आँखें मानो किसी दैवीय प्रेरणा की प्रतीक्षा कर रही थीं। भोर की प्रथम किरणों से मानो कह रही हों कि इस निरुद्देश्य जीवन में उद्देश्य की उष्णता का संचार करें । तभी अचानक किसी चिर-परिचित की आवाज़ उसके इस समाधि को भंग करती है ।
“गुटुर-गूं… गुटुर-गूं”
“उफ्फ ! आती हूँ आती हूँ ! बेचारी भूखी होंगी; कितनी बार बोला है इनसे दाने डाल दिया करें; पर मेरी सुनता कौन है यहाँ ? ओह! आज तो ये हैं भी नहीं घर पर… पता नहीं भैय्या! दुनिया जहां के टूर भी इन्हें ही करने होते; दुनिया में जैसे सिर्फ यही हैं एक काम करने वाले!” अपने ही मन में बुदबुदाती, चावल के डब्बे से एक मुट्ठी चावल निकाल कर कबूतरों को खिलाती । पर यह क्या? कबूतर के पंख तो चारो ओर बिखरे पड़े हैं… ये बिलइय्या भी ना… एक दिन सारे कबूतर खा जायेगी… पता नहीं बच पायी होगी की नहीं बेचारी.… इसीलिए आज उनकी आवाज़ ऐसे दबी हुई सी आ रही थी।”
तभी उसकी नज़र अपने उजड़े-संवरे से बागीचे पर पड़ती है। और दसों हरे-भरे लहलहाते पौधों के बीच उसकी नज़र उसे एक पौधे की एक डाली खोज ही निकालती जो हलकी सी मुरझाई हुई हो। “कोई मेरे पेड़ पर ध्यान ही नहीं देता… कैसे मुरझा गए हैं बेचारे; इन्हे तो जब देखो सिर्फ अपने कैक्टस के पेड़ ही दिखते हैं।” दौड़ के फिर से वह अंदर जाती; मानो पानी के लिए उस पेड़ की करूँ पुकार उसके कानों को भेद रही हो। और एक गिलास पानी इतने प्यार से उसे पिलाती मानो अपने बच्चे को अपने हाथ से पिला रही हो।”
इसी तरह हर सुबह उसका स्वागत करता। अपने बागीचे में टहल कर जब वो आती और क्षुदा उसे सताती, फ्रिज का दरवाज़ा खोल, वो रात की बची रोटियां तलाशती। कौन बनाएगा फिर से गरम रोटियाँ? अकेले इंसान के लिए भी कोई खाना बनाता है भला? और मेरा बच्चा भी तो ऐसे ही खाता होगा। उसको तो रोटी भी नहीं मिलती होगी।” यही सोंच कर दो में से एक ही रोटी खा कर रह जाती। “किसने बोला था उसे जर्मनी जाने को? इंडिया में क्या अच्छे कॉलेज नहीं हैं क्या?” कुछ देर मन ही मन खुद पे गुस्सा निकालने के बाद खुद ही खुद तो समझाती, “जर्मनी गया भी है तो पढ़ने ही ना? तीन साल बाद तो वापस आ ही जाएगा। और घर में बैठकर भी कभी पढ़ाई होती है भला? घर में रहता तो मैं ही परेशान करती रोज़ उसे: खाना खाओ, तो नहाने जाओ, तो कभी सोने का टाइम हो गया है… ऐसे भी कभी पढ़ाई होती भला?”
इन्हीं सब सोच में डूबी रहती और घर का काम करती। कभी गुड्डे के साथ थोड़ा मुस्कुरा लेती, कभी फूलों को निहार लेती। और इन्ही सब के बीच फिर से घडी की तरफ देखती और सोचती, “अब तो फोन करने का टाइम हो गया है इसका; अब फोन करेगा”। फिर अचानक दिमाग दौड़ता, “टाइम सही से तो देखा है ना? वहाँ का टाइम भी तो अलग होता है । अगर गलत टाइम पे फ़ोन किया और वो अपने प्रोफेसर से बात कर रहा होगा तो? और फिर अगर मुझे डाँट दिया तो?” फिर जल्दी से उँगलियों पे समय का अनुमान लगाती और फिर से इंतज़ार में बैठ जाती। फ़ोन आता तो बात करती वरना मन मसोस के बैठ जाती और सोचती की शायद बहुत काम होगा आज।
रात होती तो खाना खाकर बेटे के वापस आने के दिन गिनती और मन ही मन खाने की लिस्ट बनाती। आखिर जर्मनी के खाने में कहाँ है घर के खाने का स्वाद? “बेचारा पढ़ाई कैसे कर पाता होगा? वही आधा पका या पूरा जला खाना खाता होगा।”
इन्ही ख्यालों में डूबी, कुछ आंसू छुपाती, कुछ आंसू गटकती, रात की चादर में दुबक कर वो सो जाती… एक नयी सुबह, एक नयी प्रेरणा की तलाश में।
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